जन्म के बगैर मृत्यु का ज्ञान कहाँ 
मृत्यु की खोज कहाँ 
मृत्यु के बाद के रहस्यों की उत्सुकता कहाँ 
जन्म एक उद्देश्य है 
जन्मदिन विशेष है  .... 


चिंता, चिता के सामान है, ऐसा मै नहीं लोग कहते हैं। चिंता की बिंदी भी वहीँ जा के हटती है। चूँकि लोकतंत्र में संख्याबल का महत्त्व है इसलिए ये मानने  में कतई गुरेज़ नहीं है कि चिंता का दुष्प्रभाव अंततः चिता तक ले जा सकता है। वहाँ तक पहुंचने के अनेक कारक हो सकते हैं, उनमें चिंता को भी जोड़ लेना उचित होगा। चिंता को शब्दों में व्यक्त करना थोडा कठिन है पर इस धरती पर जिसने भी मानव योनि में जन्म लिया, उसका इस आपदा से बच पाना कतिपय असम्भव है। इसे आप व्यथित या व्याकुल करने वाले विचार के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। जैसे हर चीज़ के आकर-प्रकार होते हैं चिंता भी कई आकर-प्रकार की हो सकती है। आकर के अनुसार चिंता को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - छोटी चिंता और बड़ी चिंता। और प्रकार के हिसाब से ये व्यक्तिगत या सार्वजनिक या सार्वभौमिक हो सकती है। अब अगर हम आकर-प्रकार को क्लब करें तो निम्न प्रकार कि चिंताएं पायी जा सकतीं हैं -

          1 . छोटी व्यक्तिगत चिंता 
          2 . छोटी सार्वजनिक चिंता
          3 . छोटी सार्वभौमिक चिंता
          4 . बड़ी व्यक्तिगत चिंता
          5 . बड़ी सार्वजनिक चिंता
          6 . बड़ी सार्वभौमिक चिंता

अगर इनका आर्थिक विश्लेषण किया जाये तो निश्चय ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे चिंताओं का आर्थिक पक्ष भी हो सकता है। गरीब की चिंता और अमीर की चिंता। अमूमन ये देखा गया है कि छोटी चिंता छोटे लोग करते हैं और बड़े लोग बड़ी चिंता। छोटी चिंता करने वाला सिकुड़-सिकुड़ के छोटा होता चला जाता है और अंततोगत्वा चिता तक पहुँच ही जाता है। छोटी चिंता करने वाला चिंताओं को पोषित करता है पर उनका निराकरण न कर पाने के कारण उन्हीं में उलझता जाता है। पर बड़ी चिंता करने वाला दिन प्रति दिन बड़ा होता चला जाता है। चिंता जितनी बड़ी और सार्वभौमिक होगी आदमी उनता है महान और समृद्ध होता चला जायेगा। इसलिए इन सभी प्रकार की चिंताओं में मै बड़ी-सार्वभौमिक-चिंता को सर्वोपरि रखता हूँ।

समाधान तो बड़ी चिंता करने वाला भी नहीं खोज पाता। वो एक समस्या क्रिएट करता है। फिर उस चिंता को एन्लार्ज करना शुरू कर देता है। फिर उसका ब्रांड एम्बेस्डर बन जाता है। फिर धीरे-धीरे अपनी चिंता कि लॉबीइंग करने लगता है। धीरे-धीरे उसकी चिंता समाज-देश-दुनिया की चिंता बन जाती है। सोते-जगते वो उसी समस्या को तब तक जीता है जब तक उसे एन्जॉय करना न शुरू कर दे। इसके लिए देश-विदेश में जन-जागरण के लिए पंचतारा होटलों में वृहद् सेमिनार्स होंगे। देश-विदेश के विद्वत जन जो हर समय सम्भावित सार्वभौमिक समस्याओं पर अपनी तिरछी नज़र गड़ाए रखते हैं, वो अपने-अपने देश की सरकारों को ये विश्वास दिलाने में जुट जाते हैं कि ये आज अमरीका की समस्या है तो कल हमारी समस्या भी बन सकती है। इसलिए फलाँ कॉन्फ्रेन्स में उनकी मौजूदगी नितांत आवश्यक है। भारत पहले से ही 'पार्टिसिपेशन इस मोर इम्प्रोटंट दैन विनिंग' के सिद्धांत पर काम करता आया है। इसलिए हर फोरम पर अपना नुमाइंदा न भेजे ऐसा सम्भव नहीं है। समस्या से समाधान के लिए आवश्यकता होती है फंड्स की। और अधिक से अधिक धन उगाही के लिए समस्या जितनी बड़ी और सार्वभौमिक होगी उतने ही अधिक देश समाधान के लिए दिल और जेब खोल के खर्च करेंगे। पृथ्वी के समस्त देशों ने कुछ देशों को हर क्षेत्र में लीडर मान ही रक्खा है सो अधिकांश धन तो उन्हीं की झोली में जाना है और बाकि एसोशिएटेड देश ये मान कर ही खुश हो लेते हैं कि हम एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में महान देशों के साथ हैं या हम भी इस मिशन में शामिल हैं।    

चिंताएं कैसे ग्लोबल हो जातीं हैं ये हम सबने देखा है। पहले चिंता थी कि कैसे अपना पेट भर जाये। फिर चिंता हुई कि हमारे परिवार और इष्ट-मित्र भी ठीक-ठाक खाते पीते रहें। फिर चिंता हुई कि पूरे देश का एक भी व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए। जब इसी समस्या को ग्लोबल कर दिया गया तो इसका आयाम खरबों रुपये तक पहुँच गया। इस समस्या के समाधान में लाखों लोग जुट गए। कितने ही अलाइड सेक्टर खुल गए। सेमिनार, सिम्पोसिआ, ट्रेवल, हॉस्पिटैलिटी आदि अनेक अवसर रोजगार के बन गए। एक समस्या कैसे लाखों लोगों का पेट भर सकती है, रोजगार दे सकती है ये इसका एक नायब उदाहरण है। 

आज कल ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज का मुद्दा दुहा जा रहा है। बढती जनसंख्या को खाना खिलाना एक बड़ी समस्याओं है और जब तक क्लाइमेट पर मानव जाति का कंट्रोल नहीं हो जाता तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए हम ऐसी उन्नत फसल तैयार करने में लगें हैं जो गर्मी-सर्दी झेल ले। कीटों के प्रकोप से बेअसर रहे। बिना पानी के जीवित रहे। और उत्पादन प्रति व्यक्ति आवश्यकता को पूरा कर सके। अगर ये ख्वाब आपको सोने नहीं दे तो ये समस्या स्वागत योग्य है। पर इस ख्वाब को देखने और दिखाने वाले गहन निद्रा में डूबे हुए हैं और जागने को तैयार भी नहीं लगते। आज के उपलब्ध संसाधनों का सदुपयोग करके हम समस्याओं से कुछ हद तक निजात पा सकते हैं। कुशल प्रबंधन के द्वारा वैज्ञानिकों और किसानों ने विपरीत परिस्थितियों में उत्कृष्ट उत्पादन लिया है। उन मॉडलों को दोहरा कर उत्पादन बढ़ाना कदाचित आसान तरीका हो सकता है। रिवर लिंकिंग और भूमि जल रिचार्ज के द्वारा रेनफेड क्षेत्रों में जल की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। एक कहावत है थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। यदि उन बातों का ध्यान रक्खें तो हम सब विश्वव्यापी समस्याओं के निदान में भागीदार हो सकते हैं। 

यहाँ एक ख़ास बात है कि सपना या तो दिल्ली में देखा जाता है या अमेरिका में। बड़े देशों की देखा-देखी छोटे देश भी उन्हीं समस्याओं को महसूस करने लगते हैं। यहाँ समस्याएं और समाधान केंद्र से आते हैं। उनके लिए अरबों-खरबों का वित्तीय प्रावधान कर दिया जाता है। और ग्राउंड लेवल पर तरक्की जीरो बटा सन्नाटा। छोटी-छोटी समस्याओं को इंटीग्रेट कर के हम बड़ी समस्याएं बना लेते हैं। बड़ी समस्याओं का समाधान बहुत फण्ड मांगता है। फिर हर गांव, हर शहर, हर समुदाय की समस्याएं एक नहीं हो सकतीं तो समाधान एक कैसे हो सकता है। अक्सर ये भी देखा गया है कि फण्ड तो उपलब्ध करा दिया जाता है पर उस कार्य का क्रियान्वयन उन लोगों के हाथ सौंप दिया जाता है जो तकनीकी और प्रशासनिक रूप से या तो समस्या से जुड़े ही नहीं हैं या अक्षम हैं। मेरे विचार से समस्याओं को इंटीग्रेट करके समाधान खोजने के बजाय हर छोटी-छोटी समस्या का निदान करना चाहिए। और ये निदान उन्हीं के सहयोग से करना चाहिए जिनकी ये समस्या है। इससे न सिर्फ जन-सहयोग मिलेगा बल्कि लोग भी उन समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनेंगे जो उनसे सम्बन्ध रखतीं हैं।किसी भी समाधान को चुनिंदा जगहों पर मॉडल के रूप में विकसित करना चाहिए फिर उन्हीं प्रूवेन तरीकों को अन्य जगहों पर रिपीट करना कारगर सिद्ध हो सकता है। 

एक पर्यावरण प्रेमी कि दिनचर्या पर अगर नज़र डालें तो शीघ्र समझ आ जाता है कि चिंता करने वाले चिंता करने के लिए ही पैदा हुए हैं और उनका समाधान दूसरे कैसे कर सकते हैं ये उनके भाषण कि प्रिय विषयवस्तु है। पर्यावरण संरक्षण पर भाषण देने वाला दस लीटर पानी अपने फ्लश में बहा देता है। ब्रश करते और दाढ़ी बनाते समय नल खुला ही रखता है। आर ओ का प्यूरीफाइड पानी पीता है, एसी कमरे में सोता है, लम्बी शोफर ड्रिवेन गाड़ी में पीछे बैठ कर पाँच अख़बारों की सहायता से दिल्ली के जाम से निपटता है। एसी गाड़ी से निकल कर ए सी कमरे में शोभायमान हो जाते हैं। मीटिंग में एसी खराब हो जाये तो साहब का पारा गरम होने की आशंका होती है। जैसे कम्प्यूटर के प्रोसेसर को ठंडा रखना अनिवार्य है वैसे ही इन साहिबानों का दिमाग। आखिर इनका ये ही पार्ट सबसे ज्यादा काम करता है। देश-विदेश में कहीं भी पर्यावरण पर परिचर्चा होगी तो साहेबान का हवाई टिकट कटा होगा। भाषण के अलावा इनके किसी कृत्य से पर्यावरण प्रेम खोज पाना शायद मुश्किल हो। मेरे इस कथ्य के अपवाद हो सकते हैं पर यदि उनकी संख्या ज्यादा होती तो सुधार अब तक महसूस होने लगता।    

प्रत्येक देश-काल में ऐसी सार्वभौमिक चिंताएं शामिल रहीं हैं। एड्स, कैंसर, नशा मुक्ति, पर्यावरण, जैव विविधता, ग्लोबल वार्मिंग, क्लाइमेट चेंज, भूमि जल संरक्षण, पॉपुलेशन एक्सप्लोजन, मॉल न्यूट्रीशन इत्यादि-इत्यादि ऐसे मुद्दे रहे हैं जो युगों से छाये रहे हैं। आशा है युगों तक छाये रहेंगे। उसकी चिंता करने वाले दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहे हैं और करते रहेंगे। समस्या के समाधान से ज्यादा तरज़ीह उन्होंने समस्या को पोषित करने में दी है। क्योंकि अगर समस्या ख़तम हो गई तो धरती पर उनकी आवश्यकता भी कम हो जायेगी। कोई संस्था जानवरों के प्रति एथिकल ट्रीटमेंट के लिए काम कर रही है, कोई मानव से मानवोचित व्यवहार के लिए. समस्याओं की कमी नहीं है बस वो नज़र चाहिए जो मुद्दे खोज ले, बना ले। वो दिन अब लद गए जब काजी जी शहर के अंदेशे में दुबले हो जाया करते थे। अब तो जो जितना बड़ा काजी है उतना ही हट्टा-कट्टा नजर आता है। एयर कंडीशन कमरों में मीटिंग, गरिष्ठ काजू-बादाम के स्नैक्स और लज़ीज़ व्यंजन, आरामदायक पाँच सितारा होटलों की हॉस्पिटैलिटी मज़बूर कर देतीं हैं कि समस्याएं ऐसे ही पनपती रहे और समाधान के लिए बैठकें दुनिया के जाने-माने शहरों के आलिशान होटलों में होती रहें। जिनकी समस्याओं में जीने कि आदत पड़ गयी है वो चाहते हैं कि ये सपना चलता रहे, पलता रहे और समाधान कभी न निकले, काश। कम से कम इस जीवन में तो नहीं।  

बड़ी विश्वव्यापी चिंता, चिता कतई नहीं है। अपनी चिंताओं का आयाम बढाइये। इसलिए जब भी चिंता कीजिये देश-दुनिया की कीजिये। बड़ी चिंताएं कीजिये हुज़ूर, छोटी-छोटी चिंताएं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। 
- वाणभट्ट 

हर साल जब भी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें आते हैं तो महिलाओं के खिलाफ होनेवाले वारदातों में खतरनाक तरीके की बढ़ोतरी दिखाई देती है । महिलाओं के लिए सुरक्षित मानी जानेवाली जगहों में भी बलात्कार, यौन उत्पीड़न और तेजाब हमले जैसी घटनाएं होने लगी है । दिल्ली में मेडिकल की छात्रा से गैंगरेप की वारदात के बाद राजपथ से लेकर जनपथ तक जनउबाल दिखता है । मुंबई में महिला पत्रकार के साथ गैंगरेप से हमारा पूरा समाज उद्वेलित हो जाता है । न्यूज चैनलों और अखबारों में बलात्कार जैसे घिनौने वारदात के लिए सख्त से सख्त कानून की मांग की आवाज बुलंद होती है । लेकिन बलात्कारियों के लिए सख्त सजा की मांग के कोलाहल के बीच समाज में फैल रहे इस कैंसर के मूल में नहीं जा पाते हैं । हमें इस बात पर विचार करना होगा कि हमारे समाज में बलात्कार जैसी घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं । क्यों बलात्कार के बढ़ते मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट नियमित अंतराल पर चिंता जाहिर करता है । अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए पूछा था – हमारे समाज और सिस्टम में क्या खामी आ गई है कि पूरे देश में बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि क्या ये सामाजिक मूल्यों में गिरावट का नतीजा है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसको ठीक तरह से लागू नहीं कर पा रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट के इन तीन सवालों का अगर हम जवाब ढूंढते हैं तो हमें लगता है कि इन तीन वजहों के अलावा भी एक दो वजहें हैं जो महिलाओं के प्रति इस जघन्य अपराध को बढ़ावा देती हैं । 

हमारा समाज सदियों से नैतिक मूल्यों के लिए शासक वर्ग और धर्म गुरुओं को अपना नायक मानता रहा है । लेकिन सत्तर के दशक के बाद से राजनेताओं और धर्मगुरुओं  के नौतिक मूल्यों में जिस तरह का ह्रसा हुआ है वह सभ्य समाज के लिए चिंता की बात हैं । महिलाओं को लेकर समाज के रहनुमाओं के मन में जो विचार रहते हैं वो बहुधा उनकी जुबान पर आते ही रहते हैं । अगर हम इन चार बयानों को देखें तो महिलाओं को लेकर हमारे समाज के रहनुमाओं की राय साफ हो जाएगी । शिया धर्म गुरु कल्बे जब्बाद कहते हैं – लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें । रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास के मुताबिक- महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ, देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है । गोवा के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेसी नेता दिगंबर कामत ने कहा था- महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । इससे भी आगे जाकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री रह चुके मुलायम सिंह यादव कहते हैं – अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी । और इस वक्त के कोयला मंत्री बयानवीर श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ दी थी और कहा था कि बीबी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है । ये बयान अलग अलग धर्म और विचारधारा के मानने वालों के हैं जो अपने अपने समुदाय और विचारधारा की रहनुमाई करते हैं । समाज के रहनुमाओं के महिलाओं को लेकर इस तरह के बयानों से कम पढ़े लिखे लोगों के मन में कुत्सित विचार पैदा होते हैं और वो महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं ।

लेकिन हमारे देश के राजनेताओं को इसकी कहां चिंता है । वो तो यह जानकर संतुष्ट हो जाते हैं कि महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर पूरे विश्व में हम कई देशों से बहुत पीछे हैं । लेकिन आंकड़ों की ही बात करें तो हम पाते हैं कि 1990 से लेकर 2008 के बीच हमारे देश में बलात्कार के केस दोगुने से ज्यादा हो गए हैं।  मुंबई में तो सिर्फ एक साल में ही बलात्कर के मामलों में दोगुना इजाफा हुआ है । इन वारदातों में स्कूलों में बच्चों के साथ दरिंदगी, धर्म गुरुओं का भगवान के नाम पर भक्तों का यौन शोषण आदि सभी शामिल हैं । हमारे शासक वर्ग इन सबसे बेखबर सिर्फ संसद में कानून बनवाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले रहा है । तमाम मसलों पर एक दूसरे के विरोध में तांडव करनेवाले सांसद सजायाफ्ता को संसद में पहुंचाने के लिए अपने सारे विरोध छोड़कर एक जुट हो जाते हैं । सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा की सजा पाए नेताओं और चुनाव के वक्त जेल में रहनेवालों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी । लेकिन पक्ष और प्रतिपक्ष अपराधियों के चुनाव लड़ने को को लेकर इतने चिंतित हैं कि बहुत मुमकिन है कि संसद के इसी सत्र में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटनेवाला कानून पास हो जाए । इन सबका समाज में यही संदेश जाता है कि हमारा शासक वर्ग अपराधियों के साथ है । समाज में नैतिक मूल्यों के लिए कोई जगह ही नहीं बची । कानून बनानेवालों को समाज से ज्यादा सिर्फ अपनी चिंता है । तभी तो वोट मांगने के लिए जनता के सामने हाथ फैलानेवाली पार्टियां जनता को अपने आय के स्त्रोत जानने के हक से वंचित करने के लिए भी एकजुट हैं । ये ऐसे मुद्दे हैं जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं । जिनपर लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी है वही लोकतंत्र से मिले हक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रहे हैं, जनता की फिक्र नहीं ।

बलात्कार के बढ़ते मामलों के लिए जटिल न्याययिक प्रक्रिया, इंसाफ मिलने में हो रही देरी और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पीड़ित के साथ होनेवाला सलूक बहुत हद तक जिम्मेदार है । दिल्ली गैंगरेप की सुनवाई को फास्ट ट्रैक कोर्ट को सौंपे तकरीबन आठ महीने बीत चुके हैं लेकिन अभी तक उस मामले में फैसला नहीं आया है । आरोपियों ने अदालत को कानून दांव पेंच में उलझा दिया है । जिस पूरे मसले पर पूरे देश में गुस्से का गुबार उठा था उसका यह हाल है तो यह अंदाजा लगाना आसान है कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र की महिलाओं को कितनी जल्दी और कितना न्याय मिल पाता है । बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बना देने भर से इसपर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है । इसके साथ जांच की प्रक्रिया में भी आमूल चूल बदलाव लाना होगा । इस बात को कानूनी जामा पहनाना होगा कि पीड़िता का बलात्कार के बारे में एक ही बार बयान हो और वो भी मजिस्ट्रेट के सामने हो ताकि वो बार बार उस घिनौनी हरकत को किसी और के सामने बताने के लिए अभिशप्त ना हो । इसका एक फायदा यह भी होगा कि न्यायिक प्रक्रिया में तेजी आएगी और आरोपियों को अलग अलग बयानों में से लूप होल ढूढने का अवसर प्राप्त नहीं होगा । दरअसल इस मसले में सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है और उनके सवाल भी क्योंकि हमारे नायको की नैतिक आभा खत्म हो गई है । देश को इंतजार हैं एक ऐसे नायक की जो हमारे सामाजिक ताने बाने को सहेज कर रख सके और देश की जनता को प्रेरित भी कर सके । उम्मीद सिर्फ युवाओं से है ।

अनंत विजय 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज सिर्फ इतना ही.....मिलती हूँ कल फिर इसी समय इसी जगह...तबतक शुभ विदा साथियों। 

2 comments:

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    1. सबसे अच्छा रास्ता है
      बहुत लोग जा रहे हैं
      बस पता चलने की देर है
      परियोजना बना रहे हैं
      चिंता बहुमूल्य भी होती है
      जिसे आता है वो भुना रहे हैं :)

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