स्वागत है आप सभी का ब्लॉगोत्सव-२०१४ के तृतीय दिवस की प्रथम प्रस्तुति में 
अली सैय्यद - जिनकी टिप्पणियाँ मेरी निगाहों से सर चढ़कर बोली हैं  -

दम है इंकार में  
और सरेराह यूँ ही मचे शोर पर हुंकार में 
व्यक्तित्व का सजदा होता हो जहाँ 
वहाँ आप अली जी को रख सकते हैं  … 

उम्मतें अली सैय्यद का ब्लॉग है, जिसके बारे में वे कहते हैं कि "उम्मत "एक उर्दू शब्द है जिसका अर्थ है किसी विशिष्ट अवतार या पैगम्बर को मानने वाला समुदाय ! यानि कि किसी अवतार या पैगम्बर के अनुयाइयों को उसकी " उम्मत "कह सकते हैं  !  ब्लाग में तमाम अवतारों और सारे पैगम्बरों के अनुयाइयों को एक साथ देखने और संवाद के सहअस्तित्व की मेरी ख्वाहिश ने एक वचन 'उम्मत ' को बहु वचन 'उम्मतें ' में बदल  डाला है !"

उम्र के प्रत्येक मनकों के साथ 
यादों का सिलसिला कहो 
या यादों का कारवाँ 
कई लम्हें हथेलियों पर 
कुछ जेहन में रख जाता है  …
उन्हीं लम्हों को सहेजकर आज आई हूँ - तो कुछ संस्मरण अली जी के 


स्मृतियां जिन्हें खुरच कर फेंक नहीं सकते...!

कल शाम अपने पड़ोसी मित्र घूम घाम कर वापस लौटे तो उन्होंने मुझसे कहा , जगदीश दास  मिला था और वो आपको याद कर रहा था ! मैंने कहा हां , उसे मुझे याद करना ही चाहिये , बल्कि मैं खुद , इतने वर्षों बाद भी , उसे अपनी स्मृतियों से खुरच कर फेंक नहीं सका हूं  !   मित्र मुस्करा दिये , किस्सा उन्हें पता था !  बात 1982-83 के सत्र की है , जबकि जगदीश , बी.ए. अंतिम वर्ष में मेरा प्रिय छात्र हुआ करता था  !  प्रिय कहने का मतलब ये नहीं कि वो कक्षा  में सबसे ज्यादा गंभीर और मेधावी बंदा था बल्कि इसलिए कि वह अपनी बदमाशियों को क़ुबूल करने और उनकी एवज में माफी मांगने में हमेशा अव्वल रहा करता था ! उसकी साफ़गोई मुझे पसंद थी और यह जानकर भी कि वह आगे कोई गलती ना करने का अपना वादा , कभी भी पूरा नहीं कर पायेगा और फिर से सामने आ खड़ा होगा माफी की नई पेशकश और नये बहाने के साथ !

मार्च महीने का पहला हफ्ता रहा होगा जबकि , वह मेरे पास आया और उसने कहा सर , आपको पता है कि मेरी तैयारी बहुत अच्छी नहीं है , अगले हफ्ते से वार्षिक परीक्षायें हैं  !  बाद में गांव जाकर खेती ही करना है , तो फिर मेरिट का क्या करूंगा ?सोचता हूं , किसी , तरह से उत्तीर्ण भर हो जाऊं ! मैं अनुत्तीर्ण हुआ तो घर के लोग भी दुखी होंगे और आपको भी अच्छा नहीं लगेगा ! आप मुझे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न बता दें , तो मैं उनकी तैयारी कर लूं  ! पूरा पाठ्यक्रम पढ़ पाना मेरे वश में नहीं है !  मैं जानता था कि वह दीगर सब्जेक्ट्स के प्रोफेसर्स के साथ भी यही नौटंकी करके आया होगा !  मैंने पूछा , बाकी विषयों का क्या होगा ?  उन सबसे , महत्वपूर्ण प्रश्न पहले ही ले आया हूं सर , उसने कहा !  बस आप बचे हैं , सो कृपा करें  !  मैंने सोचा चलो जाने दो , यह अंतिम साल  है , उत्तीर्ण  हो जाये यही बेहतर होगा !  पाठ्यक्रम  देखकर हर इकाई से दो प्रश्नों की दर से कुल दस प्रश्न  लिखा दिये उसे  !  मैंने कहा , अब ठीक है ?  घर जाओ , तैयारी करो , पर वह , वहां से हिला भी नहीं  !  मैंने पूछा अब क्या है ? इतने सारे प्रश्नों का क्या करूंगा सर , ये तो पूरा पाठ्यक्रम ही हो जायेगा !  बस दो तीन प्रश्न बन जायें तो मैं उत्तीर्ण हो जाऊंगा , ज्यादा अंक लेकर क्या करूंगा ?

आप इसमें से कोई पांच छै प्रश्न ही बता दीजिए , दो तीन प्रश्न भी फंस गये , तो मेरा काम हो जायेगा ! उसका तर्क  सुनकर मैंने अपना सिर पीट लिया ...वो टलने को तैयार ही नहीं था ! मैंने पहले वाले दस प्रश्नों में से पांच नये सिरे से चिन्हांकित  कर दिये , मेरा ख्याल था कि इसमें से ,परीक्षा में उसे दो तीन प्रश्न तो मिल ही सकते हैं ! वो खुश होकर चला गया !  उसकी परीक्षायें शुरू हुईं  !  उसकी परीक्षायें दिन में 11 से 2 बजे तक हुआ करती थीं  !  एक दिन वह ठीक 2.15 बजे , रोनी सूरत लिये  हुए मेरे घर पर हाज़िर था ! मैंने पूछा क्या हुआ ? उसने कहा , आज पर्चा बिगड़ गया , सर ! कहां है प्रश्नपत्र , दिखाओ मुझे ? उसने प्रश्नपत्र दिया , जिसमें संयोगवश वो सारे प्रश्न मौजूद थे , जोकि मैंने उसे चिन्हांकित करके दिये थे ! मैंने कहा ये तो वही प्रश्न हैं फिर ? उसने कहा , इसीलिये तो सर , मैंने जैसे ही प्रश्नपत्र देखा , पांचों प्रश्न वही थे , लेकिन  खुशी के मारे मैं सबके उत्तर भूल गया ! उत्तरपुस्तिका में क्या लिख कर आया हूं , कुछ पता नहीं ? उसका उत्तर  सुन कर , मैं कर भी क्या सकता था , बस इतना ही कहा , अगर तुमने उन प्रश्नों के उत्तर अच्छी तरह से याद किये होंगे , तो सब ठीक हो जायेगा , अब घर जाओ और अगली परीक्षा की तैयारी करो , वो चला गया !

परीक्षायें खत्म हुईं  ! जब रिजल्ट निकला तो वो न्यूनतम अंक रेखा पे उत्तीर्ण होने वालों में से एक था  !  मुझे खुशी हुई कि चलो, अब वह गांव चला जायेगा...पर जल्द ही मेरी खुशी काफूर भी हो गई , जब उसने कहा , सर , मम्मी पापा बोले हैं , अब एम.ए. भी कर लो  !  मैं आपके विषय में ही प्रवेश लूंगा !  मैंने कहा कि तुम्हारे अंक  बहुत कम आये हैं , तुम्हारा प्रवेश हो ही नहीं सकता ! उसने कहा , अब मैं सीरियस होकर पढ़ना चाहता हूं तो आप मुझे मौक़ा क्यों नहीं देना चाहते हैं ? आगे आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगा , बस किसी तरह से मेरी नैया पार लगवा दीजिये ! मुझे लगा इसे सुधरने का एक मौक़ा और दिया जा सकता है ! 1983-84 की साल भर वो काफी गंभीर दिखाई दिया ! मुझे उस पर एतबार होने लगा था ! इस साल रिसर्च मैथडोलाजी के प्रश्नपत्र में उसकी मौखिक परीक्षा होने वाली थी ! अभिलेख भी उसने ठीक ठाक ही तैयार किये थे ! मौखिक परीक्षा की  तारीख निर्धारित हुई और एन उसी सुबह , वह अपना सिर घुटाये  हुये , एक बार फिर से मेरे घर में मौजूद था  ! मैंने पूछा , अब क्या हुआ ?  मेरी दादी मर गई है , सर , गांव जाना पड़ेगा ! मेरी मौखिक परीक्षा जल्दी निपटवा दीजिये !

मैंने कहा ठीक है , सबसे पहले तुम ही मौखिक परीक्षा दे देना , बाह्य परीक्षक के सामने उसका 'गेटअप' सियापे वाला था ! आंखों में गीलापन ! आवाज़ में सोग के लक्षण ! मैंने पहल करते हुए कहा , एक काम करो सिर्फ ये बता दो , कि इस साल तुम्हारे पांचों प्रश्नपत्रों के नाम क्या है ?  उसे शायद इतने सरल प्रश्न की उम्मीद नहीं रही होगी , वह मिनटों तक खामोश बैठा रहा , जब तक कि बाह्य परीक्षक ने उसे बाहर जाने के लिये  नहीं कह दिया , फिर वो गांव चला गया और उसके बाद हम कभी नहीं मिले !मुझे पता है कि उस दिन भी वह इतना सरल प्रश्न सुनकर 'ब्लैंक' हो गया था ! 


हूं...
आज अपने  ब्लागर  मित्र  से चैटिंग करते और उन्हें पढ़ते हुए मेरा 'की बोर्ड' अचानक ...हूं ...पर जा अटका ! ये बात  उन्हें  कुछ  अटपटी  लगी...सो  पूछा ....हूं ... हूं...माने क्या ? अब चौंकने की बारी मेरी थी ! उनके लम्बे वाक्य के सामने मैंने... हूं ... क्यों टाइप किया ? कारण सूझा तो फ्यूज सा उड़ गया दिमाग का ! दरअसल उनसे चैटिंग करते हुए मैं भूल गया था कि मुझे कुछ कहना / लिखना भी है ! लगा कि जैसे मैं केवल सुन रहा हूं इसलिये जबाब में टाइप किया हूं ... ! एक पुरानी आदत के तहत जो मेरे बचपन का अहम हिस्सा हुआ करती थी !
इस ...हूं ...नें जैसे मेरी स्मृतियों का पिटारा खोल कर रख दिया ! दादी को कभी देखा नहीं और दादा भी जल्दी ही गुज़र गए तो पिताजी अकेले रह गए और उनके चाचा यानि मेरे छोटे दादा तथा उनका परिवार ! छोटे दादा हर वक्त चाटुकारों से घिरे रहते / उनपर बेहिसाब खर्च करते लिहाजा उनके हिस्से की जमीने सिकुड़ती गई ! फिर वही हुआ जो हर गांव के खेतिहर परिवारों की आम कहानी है ! उन दिनों जमीनों का बटवारा जुबानी हुआ करता था इसलिये छोटे दादा जी की निगाहें अपने भतीजे की जमीनों पर टिक गई और शुरू हुई अंतहीन मुक़दमे बाजी ! घरों के अन्दर और बाहर बच्चों में कोई भेदभाव नहीं था लेकिन हर शाम को अम्मा चूल्हे पर रोटियां सेंकती , सामने पिताजी और बुआ सिर पर हाथ रखे बुदबुदाते रहते ! समझ में कुछ नहीं आता लेकिन अहसास जरुर होता कि पिताजी और छोटे दादा के बीच कुछ गड़बड़ जरुर चल रही है ! रात होते ही सारे बच्चे छोटे दादा के पास सोने पहुंच जाते ! उनके पास कथाओं का अथाह भंडार था ! दिन में उनके चेले चांटे उन्हें घेर कर आल्हा गाते और रात में हम बच्चे कहानियां सुनते ! बड़ों के पारस्परिक सम्बन्ध जरुर कटुता पूर्ण रहे होंगे ! पर रात की कहानियां , रोटियां बनाती हुई अम्मा और चूल्हे के सामने बैठे पिता जी के उदास चेहरे से ध्यान जरुर हटा दिया करती थीं ! छोटे दादा के व्यवहार से पता भी नहीं चलता था कि उन्हें मेरे पिता जी से कोई बैर भाव है ! वो अपनी धुन में कहानी सुनाते और हमारी ड्यूटी होती कि हम बच्चे हुंकारा भरेंगे ! हुंकारा यानि कि...हूं... जोकि कहानी सुनते हुए हम सबके जागते रहने का प्रमाण हुआ करता ! अब छोटे दादा जी भी नहीं रहे ...कहानियां भी नहीं रहीं ...पर हुंकारा जीवित है मेरे अंतर्मन में...तभी तो मित्र को पढ़ते हुए / अहसास हुआ जैसे कि नींद आने तक केवल सुनना ही है और भरना है कथा के साथ चलने वाला हुंकारा !


उसे तो बुद्ध होना था ...

अगस्त 82 के आस पास के ही दिन रहे होंगे तब  ! वो हर रोज राह की एक पुलिया के अनकरीब  मिलता !  स्याह सुफैद खिचड़ी दाढ़ी , बढे...बिखरे बेतरतीब बाल ,  सांवली रंगत जो उसके बेनहायेपन की वज़ह से उसको अश्वेत वर्णी होना साबित करती ! कपड़े पैबंदों के साथ तार तार और एक गहरा कत्थई काला सा कम्बल  !  वो राहगीरों को देखता  ,  संबोधित करता और उचारता कुछ अर्थहीन से शब्द हवाओं में...हालांकि किसी भी राहगीर पर जिस्मानी तौर पर झपटा नहीं वो कभी भी !  उसे देखकर हमने पहली यह बार जाना कि कुछ शब्द अर्थहीन भी हो सकते हैं और उनके साथ जड़ी हुई कुछ ध्वनियां भी...फिर भले ही उन्हें कोई इंसान अपने कंठ से साधता हो और अपनी जुबान  देता हो  !

लगता कि जैसे अपनी सारी बेमानी ध्वनियों और शब्दों को हवा में बिखेर कर वह कह रहा हो कि मैंने जो कहा नहीं...उसे सुनो ! मैंने जो सुना नहीं...उसे कहो  !  मैंने जो लिखा नहीं...उसे पढ़ो  !  मैंने जो पढ़ा नहीं...उसे लिखो  !  पर कुछ ऐसा...ऐसा कुछ भी  , कि मैं इन्सान हो जाऊं  !  इंसान उसे  पागल कहते  ! अरसे तक वह उसी सड़क पर झूमता रहा  , अपने उस वजूद के साथ  , जिसे उसपर चस्पा करके लोग उसे चीन्हते  रहे ,  जबकि पहले के किसी एक दिन वह ऐसा नहीं भी रहा होगा  !  तब शायद उसकी परसोना , उसे अब हिकारत से देखने वालों जैसी ही रही होगी !

अक्सर ये ख्याल आता कि दो मजबूत पैरों पर टिके हुए जिस्म और हाथों की दसों अंगुलियों की जीवित थिरकन के साथ चेहरे की कोटर में चिपकी हुई मशाल सी जलती बुझती आंखों के अलावा उसमें ज़िंदा इंसान होने की वो सारी निशानियां मौजूद थीं जो उसे  फिलहाल होशमंद नहीं मानने वाले इंसानों में हुआ करती हैं...तो क्या दैहिक विशिष्टताओं की मौजूदगी और ध्वनियुक्त शब्दाचार की अपनी क्षमताओं के बावजूद वह एक इंसान इसलिए नहीं है  कि उसका ध्वन्यात्मक आग्रह अर्थहीन है  !  यह तो तब भी मुमकिन था जब वह संकेतों की मौन भाषा पे आरूढ़ होकर भी , दूसरे मस्तिष्कों में अर्थयुक्त ढंग से प्रविष्ट होने में असफल रहता ! यानि कि इंसान होने के लिए एक जीवित देह मात्र की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे दूसरे इंसानों तक अर्थपूर्ण ढंग से पहुंचने  का हुनरमंद भी होना होगा !  साबित यह कि शब्द और संकेत...ध्वनियां  और अध्वनियां...यदि बेमानी हुआ करें तो इंसान का इंसान होना ही बेमानी हो जाएगा जैसे कि वो अपनी जीवित देह और अपनी सम्पूर्ण वाक् क्षमता  के बावजूद  इंसान नहीं माना गया कभी  !  

सुना था कि उसने जीवन और मृत्यु के सभी रहस्यों को जानने की उत्कंठा में अपनी सांसे होम कर दीं ,कितने ही गुरुओं और ग्रंथों की शरण नहीं गया वो...!  उसे अपने भीतर कुण्डलिनी जागृत करना थी और शायद इसी यत्न में , वो  एक होशमंद इंसान नहीं रहा !  अपनी कोशिश के हिसाब से उसे तो बुद्ध होना था...लेकिन अब वो अपने पूरे वजूद और पूरी अभिव्यक्तियों के आलोक में अर्थहीन शब्दों सा  एक अर्थहीन जिस्म होकर रह गया है  !  पता नहीं कैसे मैं , ब्लॉग जगत की कुछ चौड़ी कुछ तंग गलियों से गुज़रते हुए किसी एक पुलिया के एन सामने ठिठक जाता हूं और मेरे सामने वही अर्थहीन  शब्द गूंजने  लगते हैं  ,फिर मैं इस निष्कर्ष पर जा अटकता हूं कि इसे तो  बुद्ध  होना  था ...

अली सैय्यद 
"सर्प किसी शौक के चलते अपनी केंचुल का परित्याग नहीं करते और ना ही उन्हें, दोपायों की भांति, विविध अवसरानुकूल, बहु-केंचुलीय विकल्प उपलब्ध होते हैं ! "

ब्लॉग: ummaten


अब समय है एक छोटे से विराम का, 
मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद ....

6 comments:

  1. जल्द आयेगा
    इंतजार करते तब तक ये कहानी मे रमी हूँ जमी यहीं

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  2. बहुत अच्छा प्रयास है. अभी ही पहली बार फेसबुक पर इसकी चर्चा देखी तो चली आई. उत्सव के लिए शुभकामनाएँ.
    घुघूतीबासूती

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  3. आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूं ! सादर !

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