सशक्त दृष्टिकोण जीवन के यथार्थ की बारीकियों को बारीकी से देखते हैं,
और हर पहलु से दिखाते हैं  … ये है डॉ मोनिका शर्मा की कलम का बारीक दृष्टिकोण  … 

रश्मि प्रभा 

उग्र और असंवेदनशील होता मानवीय व्यवहार
डॉ मोनिका 
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 महज़ 5 मिनिट की कहासुनी और एक दुपहिया वाहन के कार  से टकरा जाने पर शुरू हुए झगड़े  में  एक युवक को पीट-पीटकर मार डालना । आखिर कैसी उग्रता है ये ? न  युवाओं के  मन  में संवेदनशीलता है और न ही समाज और सरकारी अमले का भय ।  सड़क पर रोष व्यक्त करना तो मानों  युवाओं की  आदत बन गया है ।आक्रामक  व्यवहार  और असभ्य भाषा आम जीवन का हिस्सा बन बैठी है । राजधानी दिल्ली ही नहीं देश के कोने कोने में वजह बेवजह सड़क पर रोष व्यक्त  कर वाद-विवाद कर लोगों से मुठभेड़ करना युवाओं के आक्रामक होते व्यवहार की चरम सीमा को दिखाता है ।  ये किस ओर जा रहे हम कि  व्यवहार की शालीनता और मर्यादा व्यवहार और विचार दोनों से नदारद है । साथ ही सवाल ये भी कि इस उग्र और असंवेदनशील से ऐसे निर्मम हादसों के सिवा और हासिल ही क्या होगा ? अपने अलावा किसी और के अस्तित्व को स्वीकार कर उसे सम्मान देने का काम घर हो या बाहर आज की  पीढी कर ही नहीं पाती  |  समझना होगा कि यहीं से एक अंतर्विरोध और संघर्ष शुरू होता है | एक अघोषित युद्ध , जो अपनत्व और सहभागिता की सोच को पूरी तरह मिटा देता है |     

आज की युवापीढ़ी एक खास तरह की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्या से ग्रसित नज़र आ रही है ।  वो है उग्रता । ऊँची आवाज़ में बात करना । किसी भी इंसान का किसी भी बात पर मजाक बनाना । दूसरों को नीचा दिखाना । असभ्य भाषा और मैं ही सही हूँ की सोच के साथ जीना । चिंतनीय तो ये है कि उन्हें ये दबंगई भरा व्यवहार  आत्मविश्वास लगता है ।   यह कैसी विडंबना है कि यह  पीढ़ी दृढ़ता और उग्रता के अंतर को भूल गयी है। अपने व्यवहार और विचार की उग्रता आत्मविश्वास की कुंजी लगती है। जबकि सच तो यह है दृढ और उग्र सोच में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। ये समझ  ही नहीं पा रहे हैं कि उग्र व्यक्ति हमेशा अपनी ही बात कहने और मनवाने में विश्वास रखता है जबकि दृढ व्यक्ति अपने विचार रखने के साथ ही दूसरों के विचारों को भी धैर्य के साथ सुनता ,समझता और सम्मान देता है। 

विचारों की उग्रता बहुत जल्दी हमारे व्यवहार में भी जगह बना लेती है । क्योंकि मन -मस्तिष्क जैसा सोचता है वैसे ही हम कर्म करते हैं और जैसे कर्म करते हैं वैसे ही परिणाम हमारे सामने होते हैं। दिल्ली में हुआ ये हादसा या इसके जैसी अन्य घटनाएँ ऐसी ही  नतीजा हैं ।  तभी तो  इस उग्र सोच के साथ बड़ी हो रही इस पीढ़ी के कृत्य आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कभी बातों बातों किसी परिवार को चलती ट्रेन से नीचे फेंक देने के लिए तो कभी शराब पीकर लोगों को कुचल देने के लिए। इस उर्जावान और आत्मविश्वासी नई पीढ़ी का यह उग्र चेहरा आप बस, ट्रेन , सड़क , पार्क, कालेज, घर यहाँ तक की किसी सामाजिक समारोह में भी देख सकते हैं। जिनके  लिए   प्रभावी व्यक्तित्व के मायने हैं उदंडता और औरों के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचाना।

विचारों में स्थायित्व और दूसरों के प्रति सम्मानजनक भाषा एवं व्यवहार व्यवसायिक ही नहीं सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी स्वयं को सफल बनाने और बनाये रखने के बहुत ज़रूरी हैं।   आमतौर पर देखने में आता है की उग्रता विचारों को नकारात्मक दिशा देती है। क्योंकि हर हाल में खुद को सही साबित करने की धुन तटस्थ वैचारिक प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है। नतीजा अक्सर गलत निर्णय पर आकर रुकता है। जिससे केवल पश्चाताप ही हाथ आता है । जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है उसका ये रोष और गैर जिम्मेदारी  भरा व्यवहार हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण  ही कहा जायेगा । व्यवहार की इस  नकारात्मकता उस उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है, दुखद ही है । 

ज़िन्दगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है


ज़िन्दगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है.....! यह  ' दी डर्टी पिक्चर ' इसी फिल्म का एक संवाद है जो उस लड़की के मन में आता है जो रुपहले परदे पर चमकने के सपने लिए ग्लैमर की  दुनिया में आती है और हर तरह के समझौते करते हुए अपने आपको स्थापित भी कर लेती है पर चकाचौंध भरी इस दुनिया में शोषित होते हुए शिखर पर पहुँचने वाली सिल्क स्मिता एक समय इतनी अकेली हो जाती है कि आत्महत्या कर लेती है | 

बीते साल की सफलतम फिल्मों में मुख्य अदाकारा की भूमिका निभाने वाली दीपिका पादुकोण ने अपने हालिया साक्षात्कार में माना कि वे अवसाद का सामना कर चुकी हैं । वे कई सालों से डिप्रेशन में हैं और दवाइयाँ भी ले रही हैं । अवसाद और तनाव का शिकार बनने की ये बात आज के दौर की इस सफल अभिनेत्री के लिए इस तरह सार्वजानिक  रूप से स्वीकार करना कई मायनों में अहम है । दीपिका की ये स्वीकार्यता न केवल फ़िल्मी दुनिया में चमक के पीछे छुपे अंधरों का स्याह सच बयान करती बल्कि इस बात को भी पुख्ता करती है कि सफलता की ऊंचाइयों पर बैठे युवा भी अकेलेपन और अवसाद को झेल रहे  हैं ।  

चेहरे जो सिनेमा के रुपहले परदे  की चमक बने रहते हैं उनके वास्तविक जीवन में ऐसा मर्मान्तक अँधेरा क्यों होता है | कई  फ़िल्मी चेहरों का जीवन साक्षी है कि प्रसिद्धि और सम्पन्नता के आकाश पर झिलमिलाने वाले सितारों की झोली में अकेलापन और अवसाद न चाहते  हुए भी आ गिरता है | भीड़ में रहने और जीने के बावजूद भी सूनेपन की त्रासदी इनके जीवन का हिस्सा बन ही जाती है | ऐसा अकेलापन जो ये स्वयं नहीं चुनते , बस समय बदलते ही अपने आप एक सौगात की तरह इन्हें थमा दिया जाता  है | इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कभी अकेले रहने को तरस जाने वाले सितारों के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है, जब कोई खोज खबर लेने वाला भी नहीं होता | यह भी उनके जीवन का एक संघर्ष ही होता है पर कभी इन्हें हेडलाइंस नहीं बनाया जाता , क्योंकि समाचार भी सफलता के ही बनते हैं सन्नाटे और अवसाद भरे जीवन को यहाँ कौन पूछता है ? यह एक ऐसी  दुनिया  है जहाँ काम है तो सब कुछ  है | लेकिन जब काम नहीं होता तो कुछ नहीं होता | ना दोस्त, ना चाहने वाले, ना परिवार वाले, ना इंटरव्यू और ना ही सुर्खियाँ  | यहीं से शुरू होता है नाटकीयता भरी ज़िन्दगी से परदे का उठना और हकीकत की दुनिया से सामना करने का सिलसिला | ऐसे में मायावी दुनिया में नाम कमा चुके चेहरे के लिए यह स्वीकार करना बहुत दुखदायी होता है कि अब उन्हें खास नहीं आम इन्सान बनकर जीना है | चूँकि सफलता कि सीढियां चढ़ते हुए हर निजी और सामाजिक रिश्ते को निवेश की तरह लिया जाता है, ऐसे समय पर इनके पास कोई अपना कहने को भी नहीं होता | 

स्टारडम का आभामंडल ही कुछ ऐसा है की यहाँ हमेशा दिखते रहना ज़रूरी है | परदे पर उपस्थिति बनी रहे इसके लिए भी लगातार संघर्ष करना होता है | सुर्ख़ियों में रहने के हर तरह के समझौते यहाँ मान्य हैं | हर हाल में अपनी छवि और स्थान को बचाए रखने का तनाव आतंक की तरह होता है | बाहरी दुनिया को दिखने वाले दंभ को छोड़ दें तो अधिकतर सितारे आत्मकेंद्रित और अकेलेपन का जीवन ही जीते हैं| परिस्थितियां इतनी विकट हो जाती हैं कि लाखों लोगों के मन में घर बनाने वालों के मन की पीड़ा को साझा करने वाला भी कोई नहीं होता |  वे परिस्थितियाँ होती हैं जब कोई नींद की गोलियां खा लेता है, फांसी के फंदे पर लटक जाता है या फिर ऊंची ईमारत से छलांग लगा देता है | हम सबको परदे पर ज़िन्दगी कई अच्छे बुरे रंग दिखाने वाले सितारे जीवन के इस बेरंग दौर में खुद से ही हार जाते हैं | इसकी एक अहम् वजह यह है कि उनके पास एक आम इन्सान की तरह कोई भावनात्मक सपोर्ट सिस्टम नहीं होता | रिश्तों की वो बुनियाद इनके जीवन में कभी बनती ही नहीं जो बिखरती ज़िन्दगी को मजबूती से थाम ले |

पहले परदे पर दिखने के लिए संघर्ष और फिर दिखते रहने के लिए | शारीरिक और मानसिक दवाब इतना कि चमचमाती रौशनी के बीच भी मन में दर्दनाक अँधेरा | कभी कभी तो लगता है कि सफलता के शिखर पर विराजे हमारे फ़िल्मी सितारों में न जाने कौन क्या कीमत चुका रहा है ..? कौन चुपचाप  टूट रहा है .... ? किसके  बाहर से चमकते जीवन के भीतर स्याह अँधेरा है ....? आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने वाले युवा ही अवसाद और तनाव को झेलते हैं। ऐसे में चर्चित चहरे ही नहीं आम युवाओं में भी ऐसे आंकड़े बढ़ रहे हैं जो सफल हैं लेकिन अवसाद और तनाव से भी घिरे हैं  ।

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